कुमाऊं विश्वविद्यालय, नैनीताल के स्वर्ण जयंती समारोह ने न केवल उत्तराखंड ही नहीं, बल्कि सम्पूर्ण भारतवर्ष के शैक्षणिक, वैचारिक और लोकतांत्रिक संवाद में एक ऐतिहासिक अध्याय जोड़ा। इस समारोह को गौरवशाली बनाने के लिए भारत के उपराष्ट्रपति की उपस्थिति और उनका व्यापक दृष्टिकोण वाला भाषण एक नई दिशा देने वाला रहा। यह संबोधन केवल विश्वविद्यालय के इतिहास की सराहना नहीं था, बल्कि एक प्रेरक दस्तावेज बन गया, जिसमें लोकतंत्र, शिक्षा, संविधान, युवाओं की भूमिका और राष्ट्रीय निर्माण जैसे विषयों का समावेश अत्यंत गहराई से हुआ।
स्वर्ण जयंती: अतीत का स्मरण, भविष्य की दृष्टि
उपराष्ट्रपति ने अपने संबोधन की शुरुआत विश्वविद्यालय के 50 वर्षों के गौरवशाली सफर की सराहना से की। उन्होंने कहा कि स्वर्ण जयंती केवल एक औपचारिक उत्सव नहीं, बल्कि आत्मविश्लेषण, पुनरावलोकन और नई रणनीति गढ़ने का अवसर है। 1973 में स्थापित इस विश्वविद्यालय ने शिक्षा, अनुशासन और अकादमिक उत्कृष्टता के केंद्र के रूप में क्षेत्र की आकांक्षाओं को मूर्त रूप दिया है।
उपराष्ट्रपति ने विश्वविद्यालय को ‘एक संस्था जो केवल क्षेत्रीय नहीं, बल्कि राष्ट्रीय महत्व की दिशा में अग्रसर है’ के रूप में परिभाषित करते हुए कहा कि संस्थान की इस यात्रा को विद्यार्थियों और शिक्षकों की निष्ठा और परिश्रम ने बल प्रदान किया।
एनएएसी ‘ए’ ग्रेड की उपलब्धि: गुणवत्ता के प्रति प्रतिबद्धता
उपराष्ट्रपति ने कुमाऊं विश्वविद्यालय को 2015 में नेशनल असेसमेंट एंड एक्रेडिटेशन काउंसिल (NAAC) द्वारा प्रदान की गई ‘ए’ ग्रेड के लिए विशेष रूप से बधाई दी। उन्होंने इसे शिक्षकों और छात्रों की कड़ी मेहनत, गुणवत्ता के प्रति समर्पण और अनुशासन का प्रमाण बताया। इस सराहना के माध्यम से उन्होंने संस्थान के भविष्य के प्रति विश्वास जताया कि यह संस्था और भी ऊँचाइयों को छुएगी।
लोकतंत्र पर चोट: आपातकाल की ऐतिहासिक स्मृति
25 जून 1975 की भयावह स्मृति को याद करते हुए उपराष्ट्रपति ने युवाओं को उस दौर की त्रासदी से परिचित कराया जिसे उन्होंने ‘भारतीय लोकतंत्र का सबसे काला अध्याय’ बताया। उन्होंने कहा कि इस दिन घोषित आपातकाल में लोकतंत्र को दरकिनार कर दिया गया, नागरिक स्वतंत्रताओं का गला घोंट दिया गया, प्रेस की आजादी समाप्त कर दी गई, और 40,000 से अधिक लोगों को बिना सुनवाई के जेलों में डाल दिया गया।
उन्होंने सर्वोच्च न्यायालय के कुछ जजों के उस निर्णय पर भी चिंता जताई जिसने मौलिक अधिकारों को आपातकाल में निरस्त करने का समर्थन किया। इसके साथ ही उन्होंने न्यायमूर्ति एच.आर. खन्ना के साहसिक असहमति मत का उल्लेख करते हुए कहा कि अमेरिका के एक अखबार ने यहां तक कहा था, “यदि कभी भारत में लोकतंत्र लौटता है, तो एच.आर. खन्ना का स्मारक अवश्य बनेगा।”
संविधान हत्या दिवस और विद्यार्थियों का आह्वान
उपराष्ट्रपति ने कहा कि इस ऐतिहासिक दिन को युवाओं को न केवल याद रखना चाहिए, बल्कि इससे सबक भी लेना चाहिए। उन्होंने इस अवसर पर कुमाऊं विश्वविद्यालय के छात्रों से आह्वान किया कि वे “संविधान हत्या दिवस” पर एक निबंध प्रतियोगिता में भाग लें। 100 प्रविष्टियों को आमंत्रित किया जाएगा और उनमें से 50 छात्रों को भारत की संसद में उनके अतिथि के रूप में आमंत्रित किया जाएगा।
यह पहल विद्यार्थियों को न केवल संविधान और लोकतंत्र के मूल्यों से जोड़ने का माध्यम बनेगी, बल्कि उनमें राष्ट्रीय चेतना और ऐतिहासिक विवेक को भी जागृत करेगी।
कुलपतियों की भूमिका और शिक्षा संस्थानों का पुनर्परिभाषण
उपराष्ट्रपति ने शिक्षा संस्थानों की सफलता में कुलपतियों और संकाय की भूमिका को निर्णायक बताते हुए कहा कि—
“तक्षशिला, नालंदा, भारतीय विज्ञान संस्थान जैसे संस्थान अपने महान नेतृत्वकर्ताओं के कारण ही गौरवशाली बने।”
उन्होंने इस बात पर ज़ोर दिया कि शिक्षा के नेतृत्व में अब दूरदर्शी, मिशन-आधारित, नवाचारोन्मुख और राष्ट्रप्रेम से प्रेरित व्यक्तियों की आवश्यकता है। उनका यह कथन भारत के शैक्षणिक परिदृश्य को पुनर्परिभाषित करने की दिशा में एक स्पष्ट संदेश था।
पूर्व-छात्रों की भागीदारी: आत्मनिर्भर विश्वविद्यालय की ओर
अपने संबोधन में उपराष्ट्रपति ने विश्वविद्यालयों को आत्मनिर्भर बनाने के लिए पूर्व-छात्रों की भूमिका पर विशेष बल दिया। उन्होंने एक प्रभावशाली गणना प्रस्तुत की—
“यदि कुमाऊं विश्वविद्यालय के 1 लाख पूर्व-छात्र हर वर्ष मात्र ₹10,000 का योगदान करें, तो ₹100 करोड़ का वार्षिक कोष तैयार हो सकता है।”
इस उदाहरण के माध्यम से उन्होंने संस्थानों में फंडिंग के वैकल्पिक स्रोतों को रेखांकित किया और कहा कि यह ‘बाढ़’ की तरह नहीं आता, बल्कि ‘गुदगुदी प्रभाव’ से धीरे-धीरे संस्थान को स्वावलंबन की ओर ले जाता है।
युवाओं के लिए तीन विकल्प: उत्प्रेरक बनें
उपराष्ट्रपति ने युवाओं को प्रेरित करते हुए तीन विकल्प सामने रखे:
-
बेचैन रहना,
-
आराम करना,
-
या एक बड़े बदलाव के उत्प्रेरक बनना।
उन्होंने स्पष्ट रूप से तीसरे विकल्प को अपनाने की सलाह दी और कहा कि आज का भारत युवाओं के लिए अवसरों की टोकरी लेकर खड़ा है। उन्होंने युवाओं से आग्रह किया कि वे केवल सरकारी नौकरी की ओर ही न देखें, बल्कि नवाचार, स्टार्टअप, तकनीकी कौशल और उद्यमिता के क्षेत्र में अपनी भूमिका तय करें।
राष्ट्रीय विकास: एक साझा जिम्मेदारी
संबोधन के एक महत्वपूर्ण भाग में उपराष्ट्रपति ने राष्ट्रीय मुद्दों पर एकजुट दृष्टिकोण की आवश्यकता को रेखांकित किया। उन्होंने राजनीतिक दलों से अपील की कि—
“राष्ट्रीय सुरक्षा, विकास और नीति-निर्माण के मुद्दों पर राजनीतिक दृष्टिकोण न रखें, इन पर सबको एकमत होना चाहिए।”
यह एक ऐसा दृष्टिकोण है जो भारत को भविष्य की वैश्विक शक्ति बनाने के लिए आवश्यक राष्ट्रीय एकता की आवश्यकता को सामने लाता है।
शिक्षा की आत्मा: डिग्री नहीं, चरित्र निर्माण
उपराष्ट्रपति ने शैक्षणिक संस्थानों की भूमिका को केवल डिग्री या प्रमाण-पत्र देने तक सीमित न मानते हुए कहा—
“वर्चुअल और कैंपस लर्निंग में अंतर केवल शारीरिक उपस्थिति का नहीं, बल्कि विचारों, संस्कारों और दृष्टिकोण के निर्माण का है।”
उन्होंने कैंपस को नवाचार और विचारों के क्रूसिबल (पिघलने वाले पात्र) के रूप में परिभाषित किया और कहा कि यहां युवाओं को जोखिम उठाने, प्रयोग करने और असफलता से न डरने की संस्कृति विकसित करनी चाहिए।
राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020: एक गेम चेंजर
उन्होंने राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 को एक ऐतिहासिक कदम बताया और कुलपति से यह सुनिश्चित करने को कहा कि छात्र इस नीति के हर पहलू से भली-भांति परिचित हों। उन्होंने इस नीति को भारत के लिए ही नहीं, बल्कि सम्पूर्ण मानवता के लिए एक “गेम चेंजर” बताया जो शिक्षण, अनुसंधान और कौशल विकास के लिए नई राहें खोलती है।
भारत की उन्नति: आँकड़ों और आशाओं की बात
उपराष्ट्रपति ने भारत की आर्थिक प्रगति की झलक प्रस्तुत करते हुए बताया कि—
-
भारत का विदेशी मुद्रा भंडार अब $700 बिलियन के पार है,
-
भारत अब दुनिया की चौथी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है,
-
और विश्व बैंक, IMF जैसी संस्थाओं ने भारत की उन्नति को स्वीकार किया है।
यह बताकर उन्होंने युवाओं में यह विश्वास भरा कि वे एक ऐसे युग में जी रहे हैं जहाँ उनके पास संसाधन, अवसर और समर्थन तीनों मौजूद हैं।
समापन: विवेकानंद की प्रेरणा और भविष्य की कल्पना
अपने भाषण के समापन में उपराष्ट्रपति ने स्वामी विवेकानंद के शब्दों को उद्धृत करते हुए छात्रों को आह्वान किया—
“उठो, जागो और तब तक मत रुको जब तक लक्ष्य की प्राप्ति न हो।”
उन्होंने छात्रों को स्मरण कराया कि शिक्षा मनुष्य में पहले से मौजूद पूर्णता की अभिव्यक्ति है और यही दृष्टिकोण भारत को वर्ष 2047 तक एक विकसित राष्ट्र बनाने की यात्रा में निर्णायक होगा।
निष्कर्ष: राष्ट्र निर्माण में युवा नेतृत्व का आह्वान
कुमाऊं विश्वविद्यालय के स्वर्ण जयंती समारोह में उपराष्ट्रपति का यह संबोधन केवल एक वक्तव्य नहीं, बल्कि एक दृष्टिकोण था—ऐसा दृष्टिकोण जिसमें इतिहास की चेतावनी, वर्तमान की संभावनाएं और भविष्य की दिशा शामिल थी। उन्होंने विद्यार्थियों से, शिक्षकों से, कुलपतियों से और नीति-निर्माताओं से संवाद स्थापित कर एक सशक्त राष्ट्र निर्माण का खाका प्रस्तुत किया।