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अभिषेक सरगम भोजपुरी लोकसंगीत में निषाद समाज की आवाज़ और सांस्कृतिक गौरव

अभिषेक सरगम भोजपुरी लोकसंगीत

अभिषेक सरगम भोजपुरी लोकसंगीत

सम्पादक : निषाद कोटो न्यूज़ नेटवर्क (KNN) | भोजपुरी संगीत जगत में निषाद समाज के लोकप्रिय गायक अभिषेक सरगम का नाम आज लोकगायन की उस परंपरा से जुड़ा है जो समाज के दिलों में सीधे उतरती है। गोरखपुर की माटी में जन्मे अभिषेक सरगम ने अपनी मधुर आवाज़ और लोकभावना से लाखों श्रोताओं का दिल जीत लिया है। धनतेरस, दीपावली, भईया दूज, छठ पूजा और कार्तिक पूर्णिमा जैसे भारतीय पर्वों पर उनके गीत समाज को एकता, आस्था और परंपरा से जोड़ते हैं। वे मानते हैं कि “लोकगीत केवल मनोरंजन नहीं, बल्कि समाज का इतिहास और संस्कृति की आत्मा हैं। उनकी आवाज़ में माटी की सोंधी गंध है, जो पीढ़ियों को अपनी जड़ों से जोड़ती है। उन्होंने इन पावन पर्वों की पूर्व संध्या पर निषाद समाज सहित सभी देशवासियों को हार्दिक शुभकामनाएँ दीं और कहा  हमारे त्योहार केवल पूजा नहीं, बल्कि सहयोग, समरसता और प्रेम का उत्सव हैं। दीपावली का दीप हर घर में खुशहाली और सद्भाव का प्रकाश फैलाए।

अभिषेक सरगम का संगीत केवल तानों और तालों तक सीमित नहीं, बल्कि एक सामाजिक संदेश लेकर आता है। उनके गीतों में मेहनतकश निषाद, मल्लाह, बिंद, केवट समाज की पीड़ा, संघर्ष और गौरव की झलक मिलती है। उन्होंने कई लोकप्रिय लोकगीतों के माध्यम से यह साबित किया है कि संगीत समाज में चेतना जगाने का सशक्त माध्यम है। उनका मानना है कि जब तक लोकगायक अपनी जड़ों से नहीं जुड़ता, तब तक उसका संगीत जनमानस को नहीं छू सकता। उनके गीतों में गाँव की मिट्टी की खुशबू, नदी की लहरों की गूंज और समाज की धड़कन महसूस की जा सकती है। अभिषेक सरगम ने कहा निषाद समाज मेहनत, त्याग और समर्पण का प्रतीक है। हमारे गीतों के माध्यम से मैं अपने समाज के संघर्ष और संस्कृति को विश्व के सामने लाना चाहता हूँ। वे लगातार समाज के युवाओं को लोककला से जोड़ने की मुहिम चला रहे हैं ताकि आधुनिकता की दौड़ में लोकसंस्कृति खो न जाए। उनकी रचनाओं में माँ गंगा का महात्म्य, छठ माता की महिमा और भाई-बहन के पवित्र रिश्तों का सजीव चित्रण देखने को मिलता है।

धनतेरस से लेकर कार्तिक पूर्णिमा तक का यह समय भारतीय संस्कृति में प्रकाश, श्रद्धा और प्रकृति की उपासना का काल माना जाता है।
अभिषेक सरगम इन पर्वों को न केवल धार्मिक दृष्टि से, बल्कि सामाजिक समरसता के प्रतीक के रूप में भी देखते हैं। उनका कहना है कि दीपावली केवल दीयों की रौशनी नहीं, बल्कि आत्मा की रौशनी है छठ पूजा केवल अर्घ्य नहीं, बल्कि जीवन के संतुलन और कृतज्ञता की भावना का उत्सव है। उन्होंने कहा जब निषाद समाज गंगा किनारे दीप जलाता है, तो वह केवल पूजा नहीं करता, बल्कि अपनी आस्था, श्रम और अस्तित्व को साक्षात करता है। यही हमारी पहचान है। अभिषेक सरगम के गीतों में यह भाव बार-बार झलकता है गंगा माई के घाटे, दीपवा जले चारो ओर यह केवल गीत नहीं, बल्कि संस्कृति की वह ज्योति है जो हर वर्ग के दिल में समानता और प्रेम का दीप प्रज्वलित करती है।

अभिषेक सरगम मानते हैं कि कलाकार केवल मंच पर नहीं, समाज में भी जिम्मेदार भूमिका निभाता है। वे निषाद समाज के युवाओं को प्रेरित करते हैं कि वे कला और शिक्षा दोनों को साधन बनाकर अपने जीवन को आगे बढ़ाएँ। उनकी दृष्टि में लोकसंगीत समाज को जोड़ने, भेद मिटाने और नई चेतना जगाने का सबसे प्रभावशाली माध्यम है।

उन्होंने हाल ही में अपनी नई पहल “सुरों की नौका – निषाद गीत यात्रा” की घोषणा की है,जिसका उद्देश्य है कि हर गाँव में लोकगीतों के माध्यम से सामाजिक एकता और सांस्कृतिक गौरव को पुनर्जीवित किया जाए। अभिषेक सरगम का यह प्रयास निषाद समाज को नई पहचान दे रहा है, जहाँ संगीत अब केवल मनोरंजन नहीं, बल्कि “संवेदनाओं का आंदोलन” बन गया है। उन्होंने अपने शुभकामना संदेश में कहा  धनतेरस, दीपावली, भईया दूज, छठ पूजा और कार्तिक पूर्णिमा के अवसर पर मेरा यही संदेश है कि हर घर में दीप जलें, हर दिल में प्रेम रहे और समाज में एकता बनी रहे।

यह गीत विशेष रूप से छठ पूजा के पर्व को समर्पित है। गीत में वर्णित है कि कैसे मछुआरा और निषाद समाज के लोग गंगा या किसी नदी के किनारे जाकर अर्घ्य अर्पित करते हैं, और यह प्रक्रिया न केवल धार्मिक है, बल्कि समाज में समर्पण, श्रम और अनुशासन का प्रतीक भी है। अभिषेक सरगम ने इस गीत में छठ माता के प्रति आस्था, पारिवारिक संबंधों में विश्वास और प्रकृति के साथ जुड़ाव को उजागर किया है। गीत का संगीत इतना सरल और मधुर है कि छोटे बच्चों से लेकर बुजुर्ग तक इसे आसानी से गुनगुना सकते हैं। यह गीत समाज को छठ पूजा की पारंपरिक रीति-रिवाजों से जोड़ने के साथ-साथ बच्चों और युवाओं में लोकसंस्कृति की समझ भी बढ़ाता है।

यह गीत दीपावली और दीपदान की परंपरा पर केंद्रित है। अभिषेक सरगम ने इस गीत के माध्यम से यह संदेश दिया है कि दीप केवल रोशनी नहीं, बल्कि समाज में प्रेम, सौहार्द और चेतना का प्रतीक हैं। गीत में गंगा किनारे जलते दीपों की कल्पना को इस तरह प्रस्तुत किया गया है कि जैसे पूरा समाज अपनी संस्कृति, मेहनत और सामूहिक चेतना के प्रकाश में नहाया हुआ है। यह गीत निषाद समाज की सांस्कृतिक पहचान को मजबूती देता है और आने वाली पीढ़ियों को अपने लोक परंपराओं के प्रति जागरूक करता है। साथ ही यह गीत सामाजिक समरसता और एकता का प्रतीक भी बन गया है, जो गाँव-गाँव में दीपावली के अवसर पर बजाया और गाया जाता है।

भाई-बहन के पवित्र रिश्ते और भइया दूज का पर्व इस गीत का मूल भाव है। अभिषेक सरगम ने इस गीत में यह दिखाया है कि कैसे भाई-बहन के बीच का प्रेम और सहयोग परिवार और समाज को मजबूत बनाता है। गीत के बोल सरल, हृदयस्पर्शी और भावपूर्ण हैं, जो घर-घर में पर्व की खुशियों और उत्सव की भावना जगाते हैं। यह गीत बच्चों को अपने परिवार के प्रति जिम्मेदारी और आदर सिखाने का कार्य करता है। साथ ही यह पर्व, समाज में महिलाओं के योगदान और पारिवारिक एकता को भी उजागर करता है। भइया दूज के नेवता” केवल उत्सव का गीत नहीं, बल्कि संस्कृति और मूल्यों का संचार भी है।

यह गीत नदी, तालाब और जलाशयों से जुड़ी मछुआरा संस्कृति का प्रतीक है।अभिषेक सरगम ने इसे कार्तिक पूर्णिमा के पर्व और मछुआरा समाज के जीवन से जोड़कर प्रस्तुत किया है।गीत में बताई गई है कि कैसे निषाद समाज के लोग जल पर नाव चलाकर अपने परिवार का जीवन यापन और समाज की सेवा करते हैं। यह गीत समाज को यह समझाने का माध्यम है कि मेहनत, समर्पण और प्राकृतिक संसाधनों का सम्मान ही जीवन का वास्तविक आधार है। साथ ही यह गीत आने वाली पीढ़ियों को सामाजिक जिम्मेदारी, परिश्रम और सांस्कृतिक ज्ञान का पाठ भी पढ़ाता है। कार्तिक पूर्णिमा के नाव चली” न केवल त्योहार की अनुभूति कराता है, बल्कि मछुआरा जीवन की कठिनाइयों और गौरव को भी उजागर करता है।

यह गीत भोजपुरी भाषा और लोकसंस्कृति के गौरव का प्रतीक है। अभिषेक सरगम ने इसे ग्रामीण जीवन की सच्चाई, माटी से जुड़ाव और लोकभाषा के माध्यम से समाज में जागरूकता फैलाने के लिए गाया है। गीत का संदेश स्पष्ट है  हमारी मिट्टी और हमारी भाषा हमारी पहचान हैं। यह गीत युवाओं को भाषा, संस्कृति और परंपरा का सम्मान करना सिखाता है। माटी बोले भोजपुरी में” केवल मनोरंजन का साधन नहीं है, बल्कि यह गीत लोककला, सामाजिक चेतना और स्थानीय पहचान का प्रतीक बन गया है।

रिपोर्ट : कोटो न्यूज़ नेटवर्क (KNN)

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