अमरनाथ निषाद का सामाजिक दीपोत्सव
सम्पादक : निषाद कोटो न्यूज़ नेटवर्क (KNN) | गोरखपुर जिले के पिपराईच विधानसभा क्षेत्र के ग्राम सारंडा में इस बार दीपावली की रौनक कुछ खास रही। गाँव की गलियाँ सिर्फ मिट्टी के दीयों की रोशनी से ही नहीं, बल्कि जनसेवा की भावना से भी जगमगा उठीं। वार्ड नंबर 3 के जिला पंचायत सदस्य के भावी प्रत्याशी अमरनाथ निषाद ने अपने क्षेत्र के गरीब, वंचित और जरूरतमंद परिवारों के बीच जाकर धनतेरस, दीपावली, छठ पूजा, कार्तिक पूर्णिमा और भईया दूज की हार्दिक शुभकामनाएँ दीं। उनके इस कदम ने पूरे गाँव में उत्साह और आत्मीयता का नया संचार कर दिया।
अमरनाथ निषाद त्योहार सिर्फ सजावट या रोशनी का नाम नहीं हैं, बल्कि ये आपसी प्रेम, सौहार्द और समाज की एकजुटता के प्रतीक हैं। जब तक हर घर में खुशियाँ नहीं पहुँचतीं, तब तक दीपावली अधूरी है।” उनकी ये बात सुनकर वहाँ मौजूद ग्रामीणों की आँखों में चमक और दिलों में उम्मीद जग उठी। समाजसेवा से जुड़ी उनकी पहचान ग्रामवासियों ने बताया कि अमरनाथ निषाद लंबे समय से क्षेत्र की जनता के बीच सक्रिय हैं। वे शिक्षा, स्वच्छता, स्वास्थ्य और ग्रामीण विकास जैसे मुद्दों पर लगातार कार्य करते आ रहे हैं।
अमरनाथ जी सिर्फ चुनाव के समय नहीं आते। गाँव का कोई भी कार्यक्रम हो, संकट का समय हो, या किसी गरीब को मदद की जरूरत — वो सबसे पहले पहुँचते हैं। यही वजह है कि लोग उन्हें अपना प्रतिनिधि मान चुके हैं। अमरनाथ निषाद ने अपने क्षेत्र में महिलाओं के लिए स्वयं सहायता समूह शुरू करवाने में भी अहम भूमिका निभाई है। उन्होंने युवाओं को स्वरोजगार के लिए प्रेरित करते हुए कहा कि “अब समय आ गया है कि गाँव आत्मनिर्भर बने और हर परिवार के घर में खुशहाली हो।
गाँव के बुजुर्ग ने कहा,
अमरनाथ बेटा हमेशा जनता के सुख-दुख में साथ रहता है। आज उसने हमें ये एहसास दिलाया कि दीपावली सिर्फ अमीरों की नहीं, सबकी है। जब हर झोपड़ी में दीया जलेगा, तभी सच्ची दीपावली होगी। इस दौरान अमरनाथ निषाद ने समाज के सभी वर्गों से अपील की कि वे मिलजुलकर त्योहार मनाएँ और स्वच्छता, पर्यावरण संरक्षण और भाईचारे का संदेश फैलाएँ। उन्होंने कहा, एकता और सहयोग ही वो दीपक हैं जो समाज को सच्चे अर्थों में उजाला देते हैं। राजनीतिक नहीं, सामाजिक मिशन हालाँकि अमरनाथ निषाद जिला पंचायत सदस्य के भावी प्रत्याशी हैं, लेकिन उनके समर्थक कहते हैं कि उनकी राजनीति “सेवा” से शुरू होती है। उन्होंने चुनावी रैलियों के बजाय जनसंपर्क और सामुदायिक कार्यों पर ज़्यादा ध्यान दिया है।
ग्राम के युवा संदीप निषाद ने कहा अमरनाथ भइया हमेशा हमें कहते हैं कि राजनीति में आने का मकसद सत्ता नहीं, सेवा होना चाहिए। हम सब उनके साथ मिलकर ऐसा गाँव बनाना चाहते हैं जहाँ हर त्योहार सबके लिए हो। सारंडा गाँव में इस बार दीपोत्सव का नज़ारा कुछ अलग था — एक ओर बच्चे आतिशबाज़ी कर रहे थे, तो दूसरी ओर अमरनाथ निषाद और उनके सहयोगी गरीब परिवारों के घरों में दीपक जला रहे थे। यही दृश्य असली भारत की तस्वीर पेश कर रहा था |
भारत के पाँच उजाले के पर्व: धनतेरस से भईया दूज तक
भारत की संस्कृति अपने त्योहारों की विविधता और उनके पीछे छिपे गहरे अर्थों के कारण विश्वभर में अद्वितीय है। हर पर्व न केवल धार्मिक आस्था का प्रतीक है, बल्कि सामाजिक सद्भाव, पारिवारिक एकता और मानवीय मूल्यों का उत्सव भी है। उत्तर भारत में दीपावली से पहले और बाद तक जो पाँच प्रमुख त्योहार मनाए जाते हैं — धनतेरस, दीपावली, छठ पूजा, कार्तिक पूर्णिमा और भईया दूज, वे जीवन में “अंधकार से प्रकाश” की यात्रा का प्रतीक हैं।
धनतेरस: स्वास्थ्य, समृद्धि और शुभारंभ का पर्व
दीपावली का शुभारंभ धनतेरस से होता है, जिसे धनवंतरि त्रयोदशी भी कहा जाता है। इस दिन भगवान धनवंतरि — जो आयुर्वेद और चिकित्सा के देवता हैं — समुद्र मंथन से अमृत कलश लेकर प्रकट हुए थे। इसलिए यह दिन स्वास्थ्य और दीर्घायु की कामना का प्रतीक माना जाता है। लोग इस दिन अपने घरों और दुकानों की सफाई करते हैं, दीप जलाते हैं और नए बर्तन, सोना-चाँदी या धातु की वस्तुएँ खरीदते हैं। यह परंपरा केवल धन प्राप्ति के लिए नहीं, बल्कि “नए आरंभ” का संकेत देती है। गाँवों में धनतेरस के दिन किसान अपने औजारों की पूजा करते हैं, व्यापारी अपने खातों की, और गृहिणियाँ रसोई की साफ-सफाई कर देवी लक्ष्मी का स्वागत करती हैं।
यह दिन हमें सिखाता है कि सच्चा धन स्वास्थ्य, मेहनत और संतोष में निहित है।
दीपावली: अंधकार पर प्रकाश और बुराई पर अच्छाई की विजय
धनतेरस के दो दिन बाद आती है दीपावली — भारत का सबसे बड़ा और सबसे प्रिय त्योहार। इसे “प्रकाश पर्व” कहा जाता है। यह केवल एक धार्मिक आयोजन नहीं, बल्कि सामाजिक और भावनात्मक एकता का उत्सव है। पौराणिक कथा के अनुसार, इस दिन भगवान राम 14 वर्ष के वनवास के बाद अयोध्या लौटे थे। अयोध्यावासियों ने उनके स्वागत में तेल के दीये जलाकर पूरी नगरी को आलोकित किया था। तब से यह परंपरा आज तक चली आ रही है। दीपावली का हर दीया आशा, सद्भाव और प्रेम का प्रतीक है। लोग अपने घरों को सजाते हैं, रंगोली बनाते हैं, लक्ष्मी-गणेश की पूजा करते हैं और मिठाइयाँ बाँटते हैं।
दीपावली की असली सुंदरता सिर्फ रोशनी में नहीं, बल्कि इस भावना में है कि जब तक हर घर में खुशियाँ नहीं पहुँचतीं, तब तक दीपावली अधूरी है। यह दिन हमें प्रेरित करता है कि जीवन के हर अंधकार — चाहे वह गरीबी हो, अज्ञान हो या नफरत — उसे प्रेम और सहयोग की रोशनी से मिटाया जा सकता है।
छठ पूजा: प्रकृति और सूर्य उपासना का अनुपम पर्व
दीपावली के कुछ दिनों बाद आता है उत्तर भारत का सबसे पवित्र और कठिन व्रत — छठ पूजा। यह बिहार, पूर्वी उत्तर प्रदेश और नेपाल के तराई क्षेत्रों में बड़े भक्ति भाव से मनाया जाता है। छठ पूजा केवल एक धार्मिक कर्मकांड नहीं, बल्कि प्रकृति के प्रति आभार और अनुशासन का प्रतीक है। इस दिन महिलाएँ — जिन्हें “छठ मइया” की उपासक कहा जाता है — 36 घंटे का निर्जला व्रत रखती हैं और अस्ताचल व उदयाचल सूर्य को अर्घ्य देती हैं। सूर्य देव को जल अर्पित करते समय जब गंगा, सरयू या किसी तालाब के घाट पर हजारों दीप जलते हैं, तब वह दृश्य अनंत भक्ति और समर्पण का प्रतीक बन जाता है। यह पर्व बताता है कि मानव और प्रकृति का रिश्ता केवल उपयोग का नहीं, बल्कि श्रद्धा का है। छठ पूजा में हर परिक्रमा, हर गीत, हर दीया — पर्यावरण, परिवार और विश्वास की त्रिवेणी बनकर चमकता है।
कार्तिक पूर्णिमा: धर्म और आध्यात्मिक प्रकाश का पर्व
दीपावली और छठ पूजा के बाद कार्तिक महीने की पूर्णिमा का दिन विशेष धार्मिक महत्त्व रखता है। इसे देव दीपावली भी कहा जाता है, क्योंकि मान्यता है कि इस दिन स्वयं देवता गंगा में स्नान करने आते हैं। काशी, अयोध्या, प्रयागराज और गोरखपुर जैसे धार्मिक स्थलों पर इस दिन लाखों दीप जलाए जाते हैं। गंगा तट पर जलते दीयों का दृश्य मानो स्वर्ग का अनुभव कराता है। लोग इस दिन दान-पुण्य करते हैं, गरीबों को भोजन कराते हैं और अपने पूर्वजों का स्मरण करते हैं। यह पर्व सिखाता है कि सच्ची पूजा वही है जिसमें दूसरों के जीवन में उजाला पहुँचे। गाँवों में इस दिन सामूहिक आरती, भजन-कीर्तन और दीपदान का आयोजन होता है। बच्चे खुश होते हैं, बुजुर्ग शांति का अनुभव करते हैं और वातावरण में “जय गंगे, जय कार्तिक देव” की ध्वनि गूँजती है।
भईया दूज: भाई-बहन के स्नेह का अनमोल रिश्ता
कार्तिक मास के इन पावन दिनों की अंतिम कड़ी है भईया दूज, जो भाई-बहन के प्रेम का प्रतीक है। इस दिन बहनें अपने भाइयों को तिलक लगाकर उनकी दीर्घायु की कामना करती हैं, और भाई बहनों को उपहार देते हैं। यह परंपरा केवल परिवारिक नहीं, बल्कि सामाजिक संदेश भी देती है — कि रिश्तों में स्नेह और जिम्मेदारी सबसे बड़ा आभूषण है। पौराणिक कथा के अनुसार, यमराज अपनी बहन यमी (यमुना) के घर इस दिन पहुँचे थे। यमी ने उनका स्वागत किया, और यमराज ने वचन दिया कि जो भाई इस दिन अपनी बहन से तिलक करवाएगा, उसे लंबी आयु और सुख मिलेगा। भईया दूज की भावना यही है कि रिश्तों की सुरक्षा और स्नेह की निरंतरता ही जीवन की सबसे बड़ी संपत्ति है।
रिपोर्ट : कोटो न्यूज़ नेटवर्क (KNN)