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तनु गोरखपुरिया भोजपुरी लोकसंगीत की धरोहर और पर्व गीतों में सांस्कृतिक संदेश

तनु गोरखपुरिया : भोजपुरी लोकसंगीत की चमकती आवाज़

तनु गोरखपुरिया : भोजपुरी लोकसंगीत की चमकती आवाज़

सम्पादक : निषाद कोटो न्यूज़ नेटवर्क (KNN) |  भोजपुरी संगीत जगत में निषाद समाज की लोकप्रिय गायिका तनु गोरखपुरिया का नाम आज हर भोजपुरी प्रेमी के दिल में सम्मान और गर्व के साथ जुड़ा है। गोरखपुर की माटी में जन्मी तनु गोरखपुरिया ने अपनी मधुर आवाज़, सहज शैली और लोकभावना के दम पर लाखों श्रोताओं का दिल जीत लिया है। धनतेरस, दीपावली, भईया दूज, छठ पूजा और कार्तिक पूर्णिमा जैसे भारतीय पर्वों पर उनके गीत न केवल मनोरंजन करते हैं, बल्कि समाज को एकता, आस्था और परंपरा से जोड़ते हैं। तनु गोरखपुरिया मानती हैं कि “लोकगीत केवल संगीत नहीं, बल्कि समाज की चेतना और संस्कृति की आत्मा हैं। उन्होंने इन पावन पर्वों की पूर्व संध्या पर निषाद समाज सहित समस्त देशवासियों को हार्दिक शुभकामनाएँ दीं और कहा कि हमारे त्योहार केवल पूजा नहीं, बल्कि सहयोग, समरसता और प्रेम का उत्सव हैं। दीपावली का दीप हर घर में खुशहाली और सद्भाव का प्रकाश फैलाए।

तनु गोरखपुरिया का संगीत केवल सुर और ताल तक सीमित नहीं है। उनके गीत समाज में संदेश, चेतना और जागरूकता का माध्यम बनते हैं। उनके गीतों में निषाद, मल्लाह, केवट, बिंद और मछुआरा समुदाय की पीड़ा, संघर्ष और गौरव झलकता है। उन्होंने कई लोकगीतों के माध्यम से यह साबित किया है कि संगीत समाज में चेतना जगाने का सबसे सशक्त माध्यम है। उनका मानना है कि जब तक कलाकार अपनी जड़ों, मिट्टी और संस्कृति से जुड़ा नहीं होता, तब तक उसका संगीत जनमानस को छू नहीं सकता। उनके गीतों में गाँव की मिट्टी की खुशबू, नदी की लहरों की गूंज और समाज की धड़कन साफ महसूस की जा सकती है। तनु गोरखपुरिया लगातार समाज के युवाओं को लोककला से जोड़ने की मुहिम चला रही हैं, ताकि आधुनिकता की दौड़ में लोकसंस्कृति का महत्व न खोए।

धनतेरस से लेकर कार्तिक पूर्णिमा तक का यह समय भारतीय संस्कृति में प्रकाश, श्रद्धा और प्राकृतिक उपासना का काल माना जाता है।
तनु गोरखपुरिया इन पर्वों को केवल धार्मिक दृष्टि से नहीं, बल्कि सामाजिक समरसता और संस्कृति के प्रतीक के रूप में देखती हैं।
उनका कहना है कि दीपावली केवल दीयों की रौशनी नहीं, बल्कि आत्मा की रौशनी है। छठ पूजा केवल अर्घ्य नहीं, बल्कि जीवन के संतुलन और कृतज्ञता का उत्सव है। उन्होंने कहा कि जब निषाद समाज और मछुआरा समुदाय गंगा या किसी नदी के किनारे दीप जलाते हैं, तो वे केवल पूजा नहीं करते, बल्कि अपनी आस्था, मेहनत और अस्तित्व को प्रदर्शित करते हैं। तनु गोरखपुरिया के गीतों में यह भाव बार-बार झलकता है — “गंगा माई के घाटे, दीप जले चारों ओर”। यह केवल गीत नहीं, बल्कि संस्कृति की वह ज्योति है जो समाज के हर वर्ग के दिल में समानता, प्रेम और चेतना का दीप प्रज्वलित करती है।

तनु गोरखपुरिया मानती हैं कि कलाकार केवल मंच पर नहीं, बल्कि समाज में भी जिम्मेदार भूमिका निभाता है। वे युवाओं को शिक्षा और कला दोनों के महत्व का संदेश देती हैं, ताकि वे अपने जीवन में समानता, जागरूकता और सामाजिक जिम्मेदारी को समझें। हाल ही में उन्होंने अपनी नई पहल “सुरों की नाव – भोजपुरी गीत यात्रा” की घोषणा की है, जिसका उद्देश्य हर गाँव और नगर में लोकगीतों के माध्यम से सांस्कृतिक गौरव और सामाजिक एकता को पुनर्जीवित करना है। तनु गोरखपुरिया का यह प्रयास निषाद और मछुआरा समाज को नई पहचान दे रहा है। संगीत अब केवल मनोरंजन का माध्यम नहीं, बल्कि “संवेदनाओं का आंदोलन” बन चुका है। उनका संदेश है कि हर घर में दीप जलें, हर दिल में प्रेम हो और समाज में हमेशा एकता बनी रहे।

यह गीत विशेष रूप से छठ पूजा के पर्व को समर्पित है। गीत में वर्णित है कि कैसे निषाद, मल्लाह, मछुआरा और अन्य समाज के लोग गंगा या किसी नदी के किनारे अर्घ्य अर्पित करते हैं। यह सिर्फ पूजा का रीति-रिवाज नहीं, बल्कि समाज में अनुशासन, मेहनत और समर्पण का प्रतीक है। जैसे लोकगायक इस गीत के माध्यम से बच्चों और युवाओं को पारिवारिक मूल्यों, भाई-बहन के प्रेम और कृतज्ञता की भावना से जोड़ते हैं। गीत का संगीत इतना मधुर और सरल है कि हर उम्र के लोग इसे आसानी से गुनगुना सकते हैं। यह गीत समाज को छठ पूजा की पारंपरिक रीति-रिवाजों से जोड़ने के साथ-साथ लोकसंस्कृति और धार्मिक चेतना की शिक्षा भी देता है।

यह गीत दीपावली और दीपदान की परंपरा पर आधारित है। गीत में गंगा किनारे जलते दीपों की सुंदर कल्पना प्रस्तुत की गई है, जिससे समाज में समानता, प्रेम और सामाजिक एकता का संदेश फैलता है। तनु गोरखपुरिया ने इसे निषाद समाज की सांस्कृतिक पहचान और परंपरा की जड़ों को उजागर करने के लिए गाया है। दीपावली केवल रौशनी का पर्व नहीं, बल्कि यह सामाजिक समरसता और मानवीय चेतना का प्रतीक है। गीत में यह दिखाया गया है कि कैसे लोकपरंपराओं के माध्यम से समाज में सद्भाव और सहयोग की भावना जगी रहती है। यह गीत गाँव-गाँव में बजता है और लोगों को समाज में मेलजोल और सामूहिक चेतना के महत्व का एहसास कराता है।

भाई-बहन के पवित्र रिश्ते को समर्पित यह गीत भइया दूज के पर्व को केंद्रित करता है। गीत में यह भाव चित्रित किया गया है कि भाई-बहन के बीच प्रेम और सहयोग परिवार और समाज को मजबूत बनाते हैं। तनु गोरखपुरिया ने इसे सरल और भावपूर्ण अंदाज में प्रस्तुत किया है, जिससे हर घर में पर्व की खुशियों और प्रेम की भावना जगती है। यह गीत बच्चों और युवाओं को परिवार के प्रति जिम्मेदारी, सम्मान और परंपरा की समझ भी सिखाता है। भइया दूज केवल उत्सव का समय नहीं, बल्कि सांस्कृतिक मूल्य और पारिवारिक रिश्तों की गहराई का प्रतीक है। गीत में यह दिखाया गया है कि भाई-बहन का प्यार समाज में समानता और सहयोग की नींव रखता है।

यह गीत मछुआरा और निषाद समाज की जीवन शैली और परिश्रम का प्रतीक है। गीत में बताया गया है कि कैसे निषाद समाज के लोग जल पर नाव चलाकर अपने परिवार का जीवन यापन और समाज की सेवा करते हैं। यह केवल पर्व का गीत नहीं, बल्कि समाज को यह समझाने का माध्यम है कि मेहनत, समर्पण और प्राकृतिक संसाधनों का सम्मान जीवन का आधार है। गीत में मछुआरा जीवन की कठिनाइयाँ और उसकी महत्ता बड़े ही हृदयस्पर्शी अंदाज में प्रस्तुत की गई हैं। यह गीत युवाओं को सामाजिक जिम्मेदारी, परिश्रम और लोकसंस्कृति की समझ भी देता है। कार्तिक पूर्णिमा की नाव चली” समाज में परंपरा और श्रम की गौरवपूर्ण छवि को उजागर करता है।

यह गीत भोजपुरी भाषा और लोकसंस्कृति के गौरव का प्रतीक है। गीत में ग्रामीण जीवन की सच्चाई, माटी से जुड़ाव और अपनी लोकभाषा के प्रति सम्मान को उजागर किया गया है। तनु गोरखपुरिया ने इसे समाज में जागरूकता फैलाने और युवाओं को भाषा और संस्कृति का सम्मान सिखाने के उद्देश्य से गाया है। गीत में यह संदेश है कि हमारी मिट्टी और हमारी भाषा ही हमारी पहचान हैं, और इन्हें संरक्षित रखना प्रत्येक व्यक्ति की जिम्मेदारी है। माटी बोले भोजपुरी में” केवल मनोरंजन का साधन नहीं, बल्कि यह गीत लोककला, सामाजिक चेतना और सांस्कृतिक पहचान का प्रतीक बन गया है। यह गीत आने वाली पीढ़ियों के लिए भोजपुरी संस्कृति और परंपरा की धरोहर के रूप में अमूल्य योगदान देता है।

रिपोर्ट : कोटो न्यूज़ नेटवर्क (KNN)

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