केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह का लोकतंत्र के पक्ष में बुलंद और ऐतिहासिक उद्बोधन

केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह का लोकतंत्र के पक्ष में बुलंद और ऐतिहासिक उद्बोधन

जब कोई सरकार तानाशाह बनती है, तो देश को कैसे भयानक दुष्परिणाम भुगतने पड़ते हैं। यह वाक्य केंद्रीय गृह एवं सहकारिता मंत्री श्री अमित शाह के उस ऐतिहासिक संबोधन का मूल संदेश था, जो उन्होंने नई दिल्ली में श्यामा प्रसाद मुखर्जी न्यास द्वारा आयोजित “आपातकाल के 50 साल” पर आयोजित कार्यक्रम के दौरान दिया।

यह आयोजन केवल एक स्मृति समारोह नहीं था, बल्कि यह लोकतंत्र की आत्मा की पुनःस्थापना का एक सार्वजनिक और वैचारिक प्रयास भी था। श्री शाह के वक्तव्य ने स्पष्ट किया कि 25 जून को ‘संविधान हत्या दिवस’ के रूप में मनाने का निर्णय सिर्फ अतीत की त्रासदी को याद करने के लिए नहीं है, बल्कि यह एक पीढ़ियों तक जागरूकता फैलाने वाला राष्ट्रीय आंदोलन है, ताकि भविष्य में ऐसी घटनाएं दोहराई न जा सकें।


आपातकाल: लोकतंत्र पर हमला, संविधान पर आघात

अपने संबोधन में श्री शाह ने कहा कि आपातकाल का समय भारत के लोकतंत्र के लिए काला अध्याय था। 25-26 जून 1975 की रात देश में वो सब हुआ जिसकी कल्पना स्वतंत्र भारत में नहीं की जा सकती थी।

उन्होंने कहा, “वह न तो केवल ‘आपातकाल’ था, न ही महज़ एक प्रशासनिक निर्णय — वह था तानाशाही मानसिकता की उपज, सत्ता में बने रहने की अदम्य भूख, और संविधान की आत्मा को कुचलने का कृत्य।”

श्री शाह ने स्पष्ट कहा कि आपातकाल को परिस्थिति की अनिवार्यता नहीं, बल्कि एक व्यक्ति विशेष की सत्ता लोलुपता का परिणाम माना जाना चाहिए। उन्होंने इस सन्दर्भ में अनुच्छेद 352 का दुरुपयोग, प्रेस पर सेंसरशिप, विपक्षी नेताओं की गिरफ्तारी और न्यायपालिका के साथ खिलवाड़ जैसी घटनाओं का विश्लेषण किया।


‘संविधान हत्या दिवस’ का औचित्य और निहितार्थ

केंद्रीय मंत्री ने बताया कि जब प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी ने 11 जुलाई 2024 को यह निर्णय लिया कि हर वर्ष 25 जून को संविधान हत्या दिवस के रूप में मनाया जाएगा, तब कई लोगों ने यह प्रश्न उठाया कि 50 साल पुरानी घटना को आज याद करना क्यों आवश्यक है।

श्री शाह ने इसका जवाब देते हुए कहा:
“क्योंकि जब समाज किसी ऐतिहासिक त्रासदी को भूलने लगता है, तब वह फिर उसी संकट के गर्त में गिर सकता है। लोकतंत्र और तानाशाही — ये दो भावनाएं किसी व्यक्ति से नहीं, बल्कि मानव प्रकृति से जुड़ी होती हैं, जो समय-समय पर फिर से उभर सकती हैं।”


संविधान निर्माण की तपस्या और एक निर्णय से उसका अपमान

श्री शाह ने भारतीय संविधान के निर्माण की गौरवगाथा को विस्तार से रेखांकित किया। उन्होंने बताया कि:

  • संविधान निर्माण में 2 वर्ष 11 महीने 18 दिन लगे,

  • 13 समितियों का गठन हुआ,

  • 165 दिन में 11 सत्र संपन्न हुए,

  • और पूरे निर्माण में 1100 घंटे 32 मिनट की चर्चा हुई।

उन्होंने कहा कि इतनी गहन प्रक्रिया और सामूहिक बुद्धिमत्ता से बना यह संविधान, 24 जून 1975 की रात केवल एक ‘किचन कैबिनेट’ के आदेश से रौंद दिया गया। यह भारतीय लोकतंत्र के इतिहास की सबसे लंबी रात थी, जिसकी सुबह 21 महीने बाद हुई।


अन्यायकाल: लोकतंत्र की हत्या, नागरिक अधिकारों का हनन

श्री शाह ने कहा कि “वह समय केवल आपातकाल नहीं था, बल्कि ‘अन्यायकाल’ था। एक ऐसा समय जब विचार, अभिव्यक्ति और विरोध को कालकोठरी में बंद कर दिया गया। यह तानाशाही मानसिकता की वह परिणति थी, जिसमें एक लाख दस हजार से अधिक विपक्षी नेताओं, पत्रकारों, छात्रों और बुद्धिजीवियों को गिरफ्तार कर लिया गया।”

उन्होंने कहा कि प्रेस को बंधक बना दिया गया, कलाकारों को चुप कराया गया, न्यायपालिका पर अंकुश लगाया गया, और लोकतंत्र की आत्मा को बंदी बना दिया गया।

उन्होंने प्रसिद्ध गायक किशोर कुमार का उदाहरण देते हुए बताया कि किस प्रकार उनके गीतों को आकाशवाणी पर प्रतिबंधित कर दिया गया।


संविधान संशोधन: लोकतंत्र के स्तंभों को कमजोर करने की साज़िश

श्री अमित शाह ने बिंदुवार बताया कि कैसे 42वें संविधान संशोधन ने संविधान के मूल ढांचे (Basic Structure) को बदलने का प्रयास किया:

  • प्रस्तावना में बदलाव किए गए,

  • अनुच्छेद 14 में हस्तक्षेप हुआ,

  • 7 अनुसूचियों (Schedules) को संशोधित किया गया,

  • 40 से अधिक धाराओं में फेरबदल किया गया,

  • 69वें अनुच्छेद द्वारा सुप्रीम कोर्ट की शक्तियां भी कमजोर कर दी गईं।

उन्होंने कहा कि ये संशोधन केवल विधायी तकनीक नहीं थे, बल्कि संविधान की आत्मा के विरुद्ध षड्यंत्र थे।


लोकतंत्र की जननी: भारत की ऐतिहासिक विशेषता

श्री शाह ने इस बात को दोहराया कि भारत को दुनिया में लोकतंत्र की जननी माना जाता है। उन्होंने कहा कि यह केवल संविधान की भावना नहीं है, बल्कि यह भारत के जन स्वभाव का प्रतिबिंब है।

उन्होंने बताया कि भारत की संस्कृति सदियों से विविधता और मतभिन्नता का सम्मान करती आई है। उन्होंने कहा:
“हमारे लिए लोकतंत्र एक विचारधारा नहीं, बल्कि आचरण का हिस्सा है। इसी कारण भारत दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के रूप में सफलतापूर्वक आगे बढ़ रहा है।”


आज की सीख: आपातकाल को याद रखना भविष्य का बचाव है

श्री अमित शाह ने विशेष रूप से युवाओं को संबोधित करते हुए कहा कि उन्हें शाह कमीशन रिपोर्ट अवश्य पढ़नी चाहिए। उन्होंने कहा कि:

“अगर भविष्य में किसी व्यक्ति के भीतर तानाशाही की प्रवृत्ति पनपने लगे, तो यह रिपोर्ट जेपी (जयप्रकाश नारायण) बनने की प्रेरणा और राह दोनों दिखाएगी।”

उन्होंने कहा कि संविधान की आत्मा की रक्षा करना सिर्फ न्यायपालिका की नहीं, जनता की जिम्मेदारी है। और अगर कोई व्यक्ति या पार्टी इस आत्मा से खिलवाड़ करे, तो जनता को उन्हें दंडित करने के लिए लोकतांत्रिक तरीकों से जागरूक होना पड़ेगा।


सर्वधर्म समभाव और विचारों की विविधता ही लोकतंत्र की शक्ति है

श्री शाह ने कहा कि लोकतंत्र का निर्माण “एक विचार, एक नेता, एक पार्टी” की मानसिकता से नहीं किया जा सकता। लोकतंत्र का सौंदर्य विचारों की विविधता, मतों के आदान-प्रदान, और संवाद की संस्कृति में है।

उन्होंने कहा कि लोकतंत्र की रक्षा तभी संभव है जब हम यह स्वीकार करें कि:

“हम अलग-अलग विचारधाराओं वाले हो सकते हैं, लेकिन हमारा उद्देश्य एक है — भारत को महान बनाना।


निष्कर्ष: एक चेतावनी और एक आह्वान

कार्यक्रम का सार यह रहा कि आपातकाल की स्मृति केवल अतीत की एक कहानी नहीं, बल्कि यह भविष्य की सतर्कता का संकेत है। श्री शाह ने कहा कि:

  • लोकतंत्र कभी स्वतः सुरक्षित नहीं होता,

  • उसे हर पीढ़ी को पुनः अर्जित और संरक्षित करना पड़ता है,

  • और इसके लिए इतिहास से सीखना और अतीत की गलतियों को न दोहराना अनिवार्य है।


संक्षेप में मुख्य बिंदु:

विषय विवरण
कार्यक्रम “आपातकाल के 50 साल” – श्यामा प्रसाद मुखर्जी न्यास द्वारा आयोजित
स्थान नई दिल्ली
मुख्य वक्ता केन्द्रीय गृह मंत्री श्री अमित शाह
प्रमुख संदेश ‘संविधान हत्या दिवस’ का आयोजन आवश्यक है ताकि तानाशाही प्रवृत्तियों को रोका जा सके
आलोचना 1975 की आपातकाल को सत्ता की भूख और संविधान का दुरुपयोग बताया
सुझाव युवाओं को शाह कमीशन रिपोर्ट पढ़नी चाहिए, ताकि लोकतंत्र के लिए सजग रहें
ऐतिहासिक सन्दर्भ 2 वर्ष 11 माह की संविधान निर्माण प्रक्रिया एक रात में नष्ट की गई
चेतावनी लोकतंत्र और तानाशाही मानव स्वभाव के दो पहलू हैं, जिन्हें समाज को पहचानना चाहिए

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