संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार प्रमुख की श्रीलंका यात्रा

संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार प्रमुख की श्रीलंका यात्रा

श्रीलंका के जटिल इतिहास, विशेष रूप से गृहयुद्ध, जातीय संघर्ष और मानवाधिकार उल्लंघनों की छाया अब भी देश के सामाजिक और राजनीतिक जीवन में महसूस की जाती है। इन संदर्भों में संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार उच्चायुक्त वोल्कर टर्क (Volker Türk) की हालिया श्रीलंका यात्रा और उनके द्वारा व्यक्त विचार एक महत्वपूर्ण मोड़ का संकेत देते हैं।

अपनी यात्रा के अंत में एक प्रेस वार्ता को संबोधित करते हुए, वोल्कर टर्क ने श्रीलंका सरकार से लंबित मानवाधिकार मामलों में ठोस परिणाम प्राप्त करने की माँग की। उन्होंने इस बात की सराहना की कि सरकार ने कुछ पुराने और गंभीर मामलों की जांचों और अभियोजन को पुनः आरंभ किया है, परंतु इसके साथ ही उन्होंने इस प्रक्रिया में विश्वसनीयता और पारदर्शिता की आवश्यकता पर बल दिया।


1. पृष्ठभूमि: श्रीलंका में मानवाधिकार मुद्दों का ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य

श्रीलंका ने 1983 से 2009 तक चले तमिल अलगाववादी संघर्ष के दौरान गंभीर मानवाधिकार उल्लंघनों का अनुभव किया। युद्ध के दोनों पक्षों—सरकारी बलों और लिबरेशन टाइगर्स ऑफ तमिल ईलम (LTTE)—पर हजारों नागरिकों की मौत, बलात्कार, अपहरण और यातना जैसे आरोप लगे।

‌प्रमुख मुद्दे:

  • विवादास्पद सैन्य अभियान (2008-09): हजारों नागरिकों की मौत।

  • गुप्त हिरासत और लापता व्यक्ति: 65,000 से अधिक लोग लापता बताए गए।

  • मास ग्रेव्स (सामूहिक कब्रें): विभिन्न स्थानों पर खोजें।

  • प्रिवेंशन ऑफ टेररिज्म एक्ट (PTA) के दुरुपयोग की शिकायतें।

इन घटनाओं पर कई अंतरराष्ट्रीय मानवाधिकार संगठनों और स्वयं संयुक्त राष्ट्र ने भी निष्पक्ष जांच की आवश्यकता जताई है।


2. वोल्कर टर्क की श्रीलंका यात्रा: एक संवेदनशील प्रयास

वोल्कर टर्क, जो वर्तमान में संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार उच्चायुक्त हैं, ने मानवाधिकार और जवाबदेही के मुद्दों को समझने के लिए श्रीलंका के विभिन्न हिस्सों का दौरा किया।

‌उनकी यात्रा के प्रमुख पड़ाव:

  • जाफना और किलिनोच्ची: युद्ध प्रभावित उत्तर क्षेत्र में पीड़ित परिवारों से भेंट।

  • कोलंबो में अधिकारियों और मंत्रियों से मुलाकात।

  • केम्मानी (Chemmani) में सामूहिक कब्र स्थल का दौरा।

  • मलई समुदाय (प्लांटेशन वर्कर्स) से भेंट और उनके जीवन की कठिनाइयों को जानना।

टर्क ने इन सभी अनुभवों को साझा करते हुए कहा:

“केम्मानी में हाल ही में फिर से खोला गया सामूहिक कब्र स्थल एक ज्वलंत अनुस्मारक है कि अतीत आज भी लोगों के जीवन को प्रभावित करता है।”


3. लंबित मामलों में न्याय की आवश्यकता: विश्वसनीयता का सवाल

संयुक्त राष्ट्र प्रमुख ने श्रीलंका सरकार द्वारा कुछ पुराने मामलों की पुनः जांच की पहल की प्रशंसा की, लेकिन साथ ही उन्होंने यह भी जोड़ा:

“न्याय तभी सार्थक होता है जब वह परिणाम देता है। केवल फाइलें खोलना काफी नहीं है, जनता को न्याय की अनुभूति होनी चाहिए।”

‌इन मामलों में अपेक्षित कार्रवाई:

  • 1990 दशक के सामूहिक नरसंहार (जैसे केम्मानी केस)।

  • लापता लोगों के मामलों में पारदर्शिता

  • संयुक्त राष्ट्र द्वारा प्रस्तावित विशेष जांच तंत्र की स्थापना

  • आरोपी सुरक्षा बल कर्मियों की जवाबदेही

टर्क ने सुझाव दिया कि यदि इन मामलों में प्रभावी परिणाम सामने आते हैं तो यह न केवल विश्वास निर्माण करेगा, बल्कि भविष्य की पीढ़ियों को भी न्याय की राह दिखाएगा।


4. विवादास्पद कानूनों पर संयुक्त राष्ट्र की आलोचना

वोल्कर टर्क ने अपने वक्तव्य में विशेष रूप से दो कानूनों पर सवाल उठाए:

‌क) Prevention of Terrorism Act (PTA):

  • आपातकालीन शक्तियाँ देती है।

  • बिना वारंट गिरफ्तारी और लंबी हिरासत की अनुमति।

  • मानवाधिकार कार्यकर्ताओं और पत्रकारों के दमन का औजार बनी।

टर्क की सिफारिश:
PTA पर तात्कालिक स्थगन (moratorium) लागू किया जाए और इसकी पूर्ण समाप्ति की दिशा में कदम उठाए जाएं।

‌ख) Online Safety Act:

  • सोशल मीडिया और डिजिटल अभिव्यक्ति पर अंकुश लगाता है।

  • कथित तौर पर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का हनन करता है।

टर्क की टिप्पणी:

“Online Safety Act को निरस्त किया जाना चाहिए क्योंकि यह आलोचना और असहमति को अपराधीकरण करता है।”


5. प्लांटेशन वर्कर्स की स्थिति: सामाजिक-आर्थिक न्याय की माँग

श्रीलंका के प्लांटेशन समुदाय, विशेषकर भारतीय मूल के तमिल मजदूर, वर्षों से वंचनाओं और न्यूनतम जीवन गुणवत्ता का सामना कर रहे हैं।

वोल्कर टर्क ने कहा:

“मजदूरों को रहने, ज़मीन और न्यूनतम वेतन जैसी मूलभूत ज़रूरतों की सुरक्षा देना राज्य की ज़िम्मेदारी है। इस वर्ग को सामाजिक न्याय तभी मिलेगा जब उनकी आवाज़ को नीति-निर्माण में शामिल किया जाएगा।”

उन्होंने सरकार से इन क्षेत्रों में तात्कालिक सुधार की सिफारिश की।


6. श्रीलंकाई सरकार की प्रतिक्रिया: संतुलन की कोशिश

श्रीलंका सरकार ने टर्क की यात्रा को सकारात्मक बताया, लेकिन उन्होंने यह भी स्पष्ट किया कि:

  • PTA में संशोधन किए गए हैं और आगे सुधार जारी हैं।

  • Online Safety Act अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को नियंत्रित नहीं करता, बल्कि गलत सूचना को रोकने का प्रयास है।

  • युद्धकालीन मामलों में न्याय की प्रक्रिया जटिल है, लेकिन सरकार प्रतिबद्ध है।

सरकार के प्रवक्ता ने कहा:

“हम संयुक्त राष्ट्र की चिंताओं का सम्मान करते हैं, पर हमें देश की आंतरिक सुरक्षा और शांति की आवश्यकता को भी ध्यान में रखना है।”


7. पीड़ित परिवारों की उम्मीदें और आवाज़ें

वोल्कर टर्क की मुलाकात उन सैकड़ों परिवारों से भी हुई जिनके बच्चे, पति, या माता-पिता लापता हो गए। इन परिवारों का एक ही सवाल था—“क्या हमें कभी न्याय मिलेगा?”

एक माँ, जिनका बेटा 2008 में किलिनोच्ची में गायब हुआ, ने कहा:

“15 साल हो गए। हम केवल एक कबर, एक सत्य और थोड़ा सम्मान चाहते हैं।”

ये आवाज़ें श्रीलंका के सामाजिक तानेबाने को जोड़ने में आधारभूत भूमिका निभाती हैं।


8. अंतरराष्ट्रीय समुदाय की प्रतिक्रिया और संभावित हस्तक्षेप

वोल्कर टर्क के बयान के बाद, कई अंतरराष्ट्रीय मानवाधिकार संगठन जैसे Amnesty International, Human Rights Watch, और International Crisis Group ने श्रीलंका से:

  • पारदर्शी न्याय प्रणाली लागू करने,

  • सभी लापता व्यक्तियों की खोज पर रिपोर्ट पेश करने,

  • और सुरक्षा बलों की जवाबदेही तय करने की माँग की है।

संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में भी इस मुद्दे को “अस्थायी एजेंडा” के रूप में रखने की चर्चा शुरू हो सकती है।


9. भारत का दृष्टिकोण: सामरिक सहयोग बनाम तमिल अधिकार

भारत, जो कि श्रीलंका का निकटतम पड़ोसी और रणनीतिक भागीदार है, इन घटनाओं पर सदैव सतर्क दृष्टि रखता आया है। विशेषकर तमिल मुद्दा भारत के तमिलनाडु राज्य की जनता के लिए अत्यंत संवेदनशील विषय है।

भारत के विदेश मंत्रालय ने कहा:

“हम श्रीलंका में तमिलों की गरिमा, सम्मान और अधिकारों की रक्षा की आवश्यकता को लेकर हमेशा प्रतिबद्ध रहे हैं। हमें उम्मीद है कि अंतरराष्ट्रीय सुझावों को गंभीरता से लिया जाएगा।”


10. भविष्य की दिशा: न्याय, सच्चाई और मेल-मिलाप की राह

वोल्कर टर्क की यात्रा का निष्कर्ष स्पष्ट है—श्रीलंका में अतीत की छाया आज भी जीवित है। जब तक:

  • न्याय नहीं होगा,

  • जब तक लापता लोगों का पता नहीं चलेगा,

  • जब तक पीड़ितों की आवाज़ें नहीं सुनी जाएँगी,

  • और जब तक शासन में पारदर्शिता और जिम्मेदारी नहीं आएगी—

तब तक स्थायी शांति एक सपना ही रहेगा।


निष्कर्ष: क्या श्रीलंका न्याय की कसौटी पर खरा उतरेगा?

श्रीलंका की वर्तमान सरकार के सामने एक ऐतिहासिक अवसर है—वह चाहें तो न्याय, सच्चाई और मेल-मिलाप की ओर आगे बढ़ सकती है; या फिर वही पुराने तरीकों, अस्वीकार और चुप्पी के मार्ग पर चल सकती है।

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